रुक्मिणी

on Sunday 3 July 2016
विदर्भ देश के राजा भीष्मक की कन्या रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के अलौकिक सौन्दर्य, दिव्य गुणों और अपरिमित पराक्रम की प्रशंसा सुनकर उसे ही अपना पति बनाने का निश्चय किया। रुक्मिणी का निश्चय उसकी सखी द्वारा माता को ज्ञात हुआ और रुक्मिणी की माता ने अपने पति राजा भीष्मक को एकान्त में कन्या की इच्छा से अवगत कराया। राजा भीष्मक पुत्री के लिए स्वयंवर करने को ही उद्यत था पर पुत्री की इच्छा ज्ञात होते ही द्वारका के राजा श्रीकृष्ण को अपनी सुशीला कन्या स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजने की बात राज्य सभा में कही।
राजा भीष्मक के मंत्रीगण व सभी सभासदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। उसके चारों छोटे पुत्रों-रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रूक्मेश और रुक्ममाली ने पिता के साथ अपनी सहमति प्रकट की किन्तु उसका सबसे बड़ा पुत्र रुक्मी जो युवराज भी था, उसे पिता का यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा। कृष्ण के साथ उसका द्वेष था। जरासंध, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे शासकों से उसकी मित्रता होने के कारण कुष्ण के प्रति उसका द्वेष-भाव स्वाभाविक ही था। उसने आवेश में आकर पिता के प्रस्ताव का विरोध किया और कहा-जिसके कुल का ठिकाना नहीं, जिसने मगधराज जरासंध के साथ युद्ध में पलायन किया, जो डाक्तू की भांति समुद्र में जा कर बसा है, ऐसे चंचलचित्त कृष्ण के साथ में अपनी बहिन का विवाह नहीं कर सकता। मेरी बहिन तो महापराक्रमी, अजेय, यशस्वी चेदिराज शिशुपाल की महारानी बनेगी।
रुक्मी के इस निश्चय का विरोध करने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी क्योंकि वह बड़ा दुराग्रही था। उसके पिता भीष्मक को भी विवश होकर अपने बड़े पुत्र की बात स्वीकार करनी पड़ी। रुक्मी ने चेदिराज शिशुपाल को अपनी बहिन रुक्मिणी से विवाह करने का निमन्त्रण तुरंत दूत द्वारा भेज दिया।
रुक्मिणी को जब यह ज्ञात हुआ कि उसका विवाह उसका भाई रुक्मी उसकी इच्छा के विपरीत चेदिराज से करने जा रहा है और पिताजी भी उसका प्रतिवाद करने में असमर्थ है। ऐसी स्थिति में रुक्मिणी ने अपनी ओर से एक पत्र लिखकर द्वारकाधीश कृष्ण को पाणिग्रहण करने का संदेश भेजा।
विवाह करने का पूरा समाचार भी लिखा था। रुक्मिणी का संदेश लेकर ब्राह्मण द्वारका पहुंचा। पत्र मिलते ही कृष्ण अकेले ही विदर्भ के लिए रवाना हो गये। बलराम ने सेना सहित विदर्भ को कृच किया। वे जानते थे कि कृष्ण अकेला गया है और वहां युद्ध होने की संभावना है।
कृष्ण के विदर्भ पहुँचने के समाचार सुनकर रूक्मी, शिशुपाल आदि क्रोधित हुए। जरासंध ने सभी राजाओं को यह कहकर उत्तेजित करने का प्रयास किया कि वहृष्ण बिना निमंत्रण के यहां सेना सहित आया है, उसका हमें प्रतिवाद करना चाहिए। विवाह बाद में होगा, पहले यादवों को यहां से निकालना चाहिए। कृष्ण ने उसी समय प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि-राजकन्या के विवाह में किसी भी राजपुरुष को जाने का अधिकार है। सम्मानित नरेश अपरिचित स्थान पर बिना अपनी सेना के नहीं जाया करते आप भी तो ससैन्य यहां आये हैं। मेरे आने का कारण का प्रयोजन पूछने वाले मगधराज कौन होते हैं? यह अधिकार तो विदर्भराज भीष्मक को है, केवल वे ही पूछ सकते हैं।राजा भीष्मक ने विवाह से पूर्व किसी प्रकार का कलह व विघ्न न हो इस हेतु सब को शान्त किया।
गैौरी पूजन को जब रुक्मिणी मन्दिर पहुँची, उस समय कृष्ण ने रुक्मिणी की योजना व इच्छानुरूप उसका हरण कर लिया और द्वारका के लिए रवाना हो गये। शिशुपाल, जरासंध, दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और ससैन्य उसका पीछा किया। बलराम ने उनसे युद्ध कर पीछे धकेल दिया। रुक्मी किसी तरह कृष्ण के रथ तक पहुँचा जाता है। कृष्ण उसके केश पकड़कर सिर धड़ से अलग करने हेतु तलवार का वार करने ही वाले थे कि रुक्मिणी ने कृष्ण के पांवों में गिरकर अपने भाई के प्राणों की भिक्षा मांगी। रुक्मिणी के कहने से रुक्मी को प्राणदान तो दे दिया किन्तु कृष्ण अपनी तलवार से उसके सिर के बाल व दाड़ी मूंछ काट कर हजामत बना दी और रथ के पीछे बांध दिया। बलराम रुक्मी, जरासंध, शिशुपाल और दुर्योधन की सम्मिलित सेना को परास्त कर जब अपने छोटे भाई के पास पहुँचे तो उन्होंने कृष्ण को डांटते हुए कहा-सम्बन्धियों के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार नहीं किया करते।उन्होंने रुक्मी को, जो रथ से बांधा था, बन्धन मुक्त किया।
रुक्मिणी को इतने विकट संघर्ष के बाद अपने आराध्यदेव कृष्ण प्राप्त हुए। कृष्ण को पति रूप में पाकर वह धन्य हुई। द्वारकाधीश की अनेक रानियां थी। भैौमासुर के गिरिदुर्ग में कैद सोलह सहस्त्र राजकुमारियों को कृष्ण ने ही मुक्त करवाया था, फिर उन सबका विवाह कृष्ण के साथ ही होता है। इतनी रानियों में उनकी आठ पट्टरानियां थी जिनमें रुक्मिणी भी एक थी। प्रद्युम्न का जन्म उसी की कोख से हुआ था। अनिरुद्ध रुक्मिणी का पैौत्र था।
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः । स्त्रिायां श्रियो गृहस्योक्तास्तमाद् रक्ष्या विशेषत । स्त्रिंया घर की लक्ष्मी कही गई। ये अत्यन्त सौभाग्य-शालिनी, आदर के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा है अतः उनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।
-वेदव्यास (महाभारत, उद्योगपर्व, ३८/११) स्त्रीरत्नं दुष्कुलाच्चापि विषादप्यमृतं पिबेत् । अदूष्या हि स्त्रिायो रत्नमाप इत्येव धर्मतः। नीच कुल से भी उत्तम स्त्री को ग्रहण कर ले। विष के स्थान से भी अमृत मिले तो उसे पी ले, क्योंकि स्त्रियां, रत्न और जल ये धर्मत : दूषणीय नहीं होते।

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