कृष्ण
के माता-पिता देवकी और वासुदेव उनके जन्म के समय कारागृह में बन्दी थे। ब्रज के
राजा नन्द के यहां बालक कृष्ण को चुपचाप भेज दिया जाता है। नन्द और यशोदा के कोई
सन्तान न थी। ढ़लती उम्र में उन्हें कृष्ण को पुत्रवत् पालने का जब सैौभाग्य मिला
तो वे आनन्द विभोर हो गये। यशोदा ने बड़े वात्सल्य और प्रेम के साथ कृष्ण का
लालन-पालन किया और देवकीनन्दन यशोदा-नन्दन बन कर ब्रज में विविध बालक्रीड़ाओं से
नन्द और यशोदा को ही नहीं, पूरे
ब्रज मण्डल को स्वर्गिक आनन्द से युक्त कर दिया।
वात्सल्य
की प्रतिमूर्ति यशोदा ने कृष्ण को पुत्र रूप में जिस प्रकार का प्यार प्रदान किया
व सभी माताओं के सम्मुख एक अनुपम आदर्श है। यशोदा मैया अपने पुत्र को देखकर फूली
नहीं समाती है। प्रतिक्षण उसका आनन्द बढ़ता जाता है। हर्षित होकर इधर-उधर डोलती है,
कभी पुत्र को पालने में सुलाकर बाल कृष्ण की
मधुर लीलाओं का रसपान कर मन-ही-मन मुदित होती है
पलना
स्याम इमुलावति जननी । अति अनुराग परस्पर गावति, प्रफुलित
मगन होति नंद घरनी। उमंगि उमंगि प्रभु भुजा पसारत, हरषि
जसोमति अंकम भरनी। सूरदास प्रभु मुदित जसोदा, पूरन
भई पुरातन करनी। अपने पुत्र के प्रति उमड़ते स्नेह को वह विविध कल्पनाओं में मोड़
आनन्द में निमग्न होती है। वह विधाता से वह दिन शीघ्र दिखाने की प्रार्थना करती है
जिस दिन उसका लाल घुटनों कै बल चलने लगेगा। कब दूध की दांतुलियाँ देखकर मेरे नेत्र
सफल होंगे। अपने प्यारे लाल की तुतलाती बोली का आनन्द कब मेरे कानों में घुलेगा और
कब मुझे मैया कहकर पुकारने लगेगा।
नान्हरिया
गोपाल लाल, तू बेगि
बड़ौ कि होहि। इहिं मुख मधुर वचन हंसि कैधौं, जननि
कहै कब मोहि। कृष्ण की लीला माधुरी को देख यशोदा का वात्सल्य सहस्त्र गुण उमड़ता।
यशोदा के वात्सल्य से कृष्ण की मनोहारी लीला किरणें निखर उठती। दोनों में जैसे एक
प्रकार की होड़-सी लगी हुई थी। पुत्र की बालसुलभ क्रीड़ाओं में यशोदा सब
कुछ भूल भाव विभोर हो जाती। सचमुच में यशोदा
का जो यह अनूठा वात्सल्य था वह असीम, अनन्त
और अपरिमित बन गया था। बालकृष्ण की लीला व यशोदा के वात्सल्य का जितना सूक्ष्म,
सुन्दर और विलक्षण वर्णन सूरदास ने किया है
वैसा शायद ही कोई कवि कर पायेगा।
कृष्ण
की बाल-लीलाओं में एक युग एक पल की भांति बीत गया। यशोदा माता को यह ज्ञात ही नहीं
हुआ कि ग्यारह वर्ष और छः माह बीते गये हैं और अब देवकीनन्दन कृष्ण,
जिसे यशोदा ने अपने वात्सल्य रस में निरन्तर
सराबोर रखा, उन्हें
त्यागकर मथुरा चले जायेंगे। मथुरा जाकर कंस का वध किया व अपने पिता व माता वसुदेव
व देवकी को कैद से मुक्त किया और अपने माता-पिता को साथ ले वे द्वारका चले गये।
पीछे सारे ब्रज की और विशेषकर यशोदा रानी की करूण दशा का कोई पार न था।
वात्सल्यनिधि यशोदा का कृष्ण के प्रति कितना अगाध स्नेह था,
ऐसा स्नेह औरस पुत्र के प्रति भी देखने को
नहीं मिलता जबकि कृष्ण तो केवल उसके पोषित पुत्र थे। यशोदा की मनोदशा और कृष्ण के
प्रति उसके अवकृत्रिम स्नेह का एक उदाहरण उसके द्वारा वसुदेव पत्नी देवकी को भेजे
गये संदेश में इस प्रकार वर्णित है
संदेसौ
देवकी सौं कहियो। हाँ तो धाय तुम्हारे सुत की, मया
करत नित रहियो। जदपि टेव . तुम जानत उनकी, तऊ
मोहि कहि आर्वे। प्रातहि उठ तुम्हरे सुत कों, माखन
रोटी भार्वै। तेल उबटनो अरू तातो जल, देखत
ही भजि जावें। जोड़ जोड़ मांगत, सोइ
सोड़ देती, क्रम क्रम
करि करि न्हावें । सूर पथिक सुनि मोहि रैन दिन, बढ़यो
रहत उर सोच। मेरौ
अलक लडैतो मोहन, ही है करत
सकोच।
> भामिनी
वही तरुणी, नर वही तरूण
है। -रामधारीसिंह
‘दिनकर'
(परशुराम की प्रतीक्षा,
पृ. २०)
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