शूरसेन
की पुत्री पृथा परम सुन्दरी और सात्विक प्रवृत्ति की कन्या थी। शूरसेन की बुआ के
पुत्र कुन्तीभोज ने, जिसके कोई सन्तान न थी,
पृथा को गोद लिया। यही पृथा
कुन्तीभोज की दत्तक पुत्री होने के कारण कुन्ती नाम से विख्यात हुई।
राजा
कुन्तीभोज ने अपनी प्रिय राजकुमारी के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। कुन्ती ने
पाण्डु के गले में जयमाला पहनाई। विवाह के उपरान्त पाण्डु कुन्ती सहित हस्तिनापुर
लौटे। पाण्डु ने आखेट में मृगवेषधारी किन्दम नामक ऋषिकुमार पर बाण चलाया जिससे वह
मर गया। मरते समय मृग ने अपना ऋषिकुमार का रूप प्रकट कर पाण्डु को शाप दिया कि “सहवास
करते मृग को तुमने मारा, इस अपराध के फलस्वरूप पत्नी से सहवास करते समय
तुम्हारी मृत्यु होगी।” पाण्डु ने विरक्त हो संन्यास धारण करने का
विचार किया, किन्तु कुन्ती ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
कुन्ती
ने बचपन में मंत्र शक्ति से सूर्य का आह्वान किया था और सूर्य के अंश से उन्हें
पुत्र की प्राप्ति हुई थी जिसे लोकलाज के भय से पिटारी में बंद करके नदी में बहा
दिया था। अधिरथ नामक सारथी को यह पिटारी प्राप्त हुई और उसने उसका पालन पोषण किया, यही
सूत पुत्र वीर कर्ण और दानी कर्ण के रूप में विख्यात हुआ।
सन्तानहीन
पाण्डु बड़े दुखी थे, उन्होंने माद्री नामक राजकुमारी से एक और
विवाह भी किया था। पर दो-दो रानियां होते हुए भी सन्तानहीन पिता का मन बड़ा संतप्त
रहता था। पितृ ऋण से उऋण होने के लिए सन्तान आवश्यक मानी जाती है। उन्होंने तपस्या
की, ऋषियों ने उन्हें देवांश से पांच पुत्रों की प्राप्ति का
वरदान दिया। पाण्डु ने कुन्ती से सन्तति प्राप्ति के लिए कोई यत्न करने को कहा तो
कुन्ती ने निवेदन किया “मेरे आह्वान करने पर देवता उपस्थित हो सकते
हैं, मुझे दुर्वासा ऋषि द्वारा यह मंत्र सिद्धि मिली है अतः आप
आज्ञा दें, आपको कैसा पुत्र चाहिए,
किस देवता का आह्वान करूं।”
कुन्ती
के यह वचन सुनकर पाण्डु के संतप्त मन की वेदना समाप्त हुई और अपने पति की
आज्ञानुसार धर्मराज से धर्मात्मा पुत्र युधिष्ठर,
पवन के अंश से पराक्रमी
पुत्र भीमसेन व देवराज इन्द्र के अंश से श्रेष्ठ पुत्र अर्जुन नामक इन तीन पुत्रों
की प्राप्ति की। पति की आज्ञा पाकर अश्विनीकुमारों के अंश से माद्री नामक दूसरी
रानी को भी नकुल और सहदेव ये दो पुत्र कुन्ती ने प्रदान किये। पाण्डु के ये पांचों
पुत्र-युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन,
नकुल, और
सहदेव ‘पांच पाण्डव'
के नाम से विख्यात हुए।
शाप
के प्रभाव से पाण्डु माद्री के साथ सहवास करते समय मृत्यु को प्राप्त हुए। माद्री
अपने पति के साथ सती हो गयी और पांचों पुत्रों को पालने का भार कुन्ती पर आ गया।
अपने तीन पुत्र तथा माद्री के दो पुत्र सबको समान भाव से पाला और ममत्व प्रदान
किया। सहदेव और नकुल को कभी यह आभास नहीं हुआ कि हमारी माता दिवंगत हो चुकी है और
कुन्ती हमारी विमाता है इतना स्नेह और वात्सल्य कुन्ती जैसी विमाता ही उन्हें
प्रदान कर सकती थी।
अत्याचारी
दुर्योधन के कारण पांडवों को अनेक प्रकार का कष्ट सहना पड़ा व विभिन्न प्रकार के
संकट में माता कुन्ती हमेशा उनके साथ रही। अपने पुत्रों के संकट में माता कुन्ती
हमेशा उनके साथ रही। उनके कष्टों में सहयोगी बन उसने पुत्रों को सदा धर्म और नीति
पर चलने की शिक्षा दी। साथ ही विपत्तियों व कष्टों का डटकर मुकाबला करने हेतु अपने
पुत्रों को सदा प्रेरणा व सम्बल प्रदान करती रही। माँ के वात्सल्य और स्नेह की
स्निग्ध छाया तले पाण्डवों ने हर कष्ट को हंसते हंसते सहा।
कृष्ण
के शान्ति दूत बनकर दुर्योधन की राज्यसभा में जाने पर भी कोई परिणाम नहीं निकला।
दुर्योधन बिना युद्ध के सुई की नोंक के बराबर भी भूमि देने को तैयार न था। ऐसी
स्थिति में भी युधिष्ठिर द्वारा किसी समझौते द्वारा शांति स्थापना का कार्य कुन्ती
को बड़ा बेतुका लगा। कुन्ती ने अपने पुत्रों को राजपूतोचित कर्तव्य का पालन करने
की सीख देते हुए कहा-“युधिष्ठिर! तुम जिस शांति की आशा में सन्तोष
करके बैठे हो, ऐसा सन्तोष तुम्हारे पिता और पितामह को कभी प्रिय नहीं था।
दुर्योधन से अपने लिए याचना करना तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। याचना तो
ब्राह्मणों को शोभा देती है, तुम तो राजपूत हो, भुजबल
से अपना राज्य प्राप्त करो। पांच-पांच वीर श्रेष्ठ पुत्रों की मां होने के बाद भी
मैं दूसरों की कृपा पर आश्रित रहकर जीवन बीताऊं,
इससे बढ़कर और कष्ट की कौनसी
बात मेरे लिए होगी। क्षत्राणियां जिस दिन के लिए पुत्र उत्पन्न करती हैं वह समय अब
आ गया। अर्जुन बेटे तुम्हारे गाण्डीव की परीक्षा,
व भीमसेन तुम्हारे गदा के
पराक्रमी प्रहारों का समय आ गया है। मांगने से भीख भी नहीं मिला करती फिर राज्य तो
कैसे मिलेगा।' *
मां
के वचनों से पांचों पाण्डव युद्ध करके अपना राज्य हस्तगत करने को सचेष्ट हुए। कौरव
और पाण्डवों के मध्य भयंकर संघर्ष होता है और इस समर में कौरवों को परास्त कर
पाण्डव विजयी होते हैं। मां कुन्ती के आशीर्वाद से पाण्डवों की यश-कीर्ति आज भी
अमर है।
*
स्त्रिायः साध्व्यो महाभागाः
सम्मता लोकमातरः। धारयति महीं राजनिर्मा सवनकाननाम्। हे राजन् ! साध्वी स्त्रियाँ
महाभाग्यशालिनी होती हैं तथा संसार की माता समझी जाती है। वे अपने पतिव्रत के
प्रभाव से वन और काननों सहित इस पृथवी को धारण करती हैं। -वेदव्यास (महाभारत, अनुशासन
पर्व, ४३/२०)
पिता
रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। पुत्राश्च स्थविरे भावे न स्त्री
स्वातन्त्रायमर्हति। पिता स्त्री की कुमारावस्था में, पति
युवावस्था में तथा पुत्र वृद्धावस्था में रक्षा करता है। स्त्री की स्वतंत्र नहीं
रहना चाहिए।
-वेदव्यास (महाभारत, अनुशासन
पर्व, ४६/१४)
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