कैकेयी

on Thursday 30 June 2016
कैकेयी कैकय देश के राजा की राजकुमारी थी। कैकय देश अपने स्वर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है। राजकुमारी कैकेयी अत्यन्त रूपवती थी। अप्रतिम सौन्दर्य की धनी कैकेयी शस्त्र-विद्या में भी पारंगत थी। राजा दशरथ ने अपना अन्तिम विवाह इसी राजकुमारी से किया। अपने सौन्दर्य और गुणों से कैकेयी ने राजा दशरथ को पूर्ण रूप से अपने स्नेह में बांध रखा था। सबसे छोटी रानी होने के बावजूद भी वह राजा दशरथ की प्रिय रानी थी और उसकी आज्ञा राजमहिषी से भी बढ़कर हुआ करती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि राजा दशरथ के रनिवास में कैकेयी सबसे प्रभावशाली महारानी थी।
 
एक बार जब देवताओं के राजा इन्द्र शम्ब (शम्बरासुर) नामक असुर से अत्यन्त दुखी हो गये। इस कष्ट से उबरने के लिए राजा दशरथ से सहायता मांगी क्योंकि देवता असुरों को परास्त नहीं कर पा रहे थे। राजा दशरथ ने देवराज इन्द्र की सहायता करना स्वीकार कर लिया और अमरावती के लिए रवाना हुए तो कैकेयी ने साथ चलने की इच्छा प्रकट की। महारानी कैकेयी शस्त्र-संचालन व युद्ध-विद्या में प्रवीण थी और राक्षसों का युद्ध देखने की उसकी हार्दिक इच्छा थी। राजा दशरथ ने अपनी प्रिय रानी की प्रबल इच्छा को देखते हुए उसे भी अपने साथ ले लिया।
 
असुरों से घोर युद्ध करते हुए रणभूमि में राजा दशरथ घायल होकर मूच्छित हो गये। उनका सारथी भी शत्रुओं द्वारा जब मार डाला गया तो महारानी कैकेयी ने उस विकट परिस्थति में भागते हुए रथ के घोड़ों की बाग संभाली और धनुष बाण हाथ में लेकर असुरों से संग्राम करते हुए पति की रक्षा करने लगी। कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ की मूच्छ दूर हुई, वे सावधान हो पुनः युद्ध में जुट गये। कैकेयी ने सहसा देखा कि असुरों के बाण से, राजा दशरथ जिस रथ पर सवार थे उसका धुरा कट गया है। धुरे के कटने के बाद रथ का पहिया डगमगा कर दशरथ को भूमि पर गिरा दे इसके पूर्व तत्काल महारानी ने रथ से कूद धुरी की जगह अपनी भुजा लगा दी जिससे पहिया डगमगाये नहीं और राजा दशरथ को युद्ध में किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न हो। अन्ततः राजा दशरथ ने अपने पराक्रम से असुरराज शम्बासुर को परास्त किया।


अपनी प्रिय रानी कैकेयी द्वारा संग्राम में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गयी और दो बार सहायता कर राजा दशरथ के प्राणों पर आये संकट से जो रक्षा की उससे वे बड़े प्रसन्न हुये और इसके उपलक्ष्य में महारानी से दो वरदान मांगने को कहा। पतिपरायणा कैकेयी, जो वीरांगना के रूप में अपना अद्भुत परिचय दे चुकी थी, राजा दशरथ को निवेदन किया-यह तो मेरा सौभाग्य था कि मैं आपकी कुछ सेवा कर सकी। पति-सेवा से बढ़कर पत्नी के लिए और कोई कर्म नही होता, इस हेतु मैं अपने आपको वरदान योग्य कोई कार्य किया हो ऐसा नही मानती और फिर आपकी मुझ पर असीम कृपा है। मुझे किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है। आप मेरे आराध्य है, आपने मुझे अपनी सेवा का जो अवसर प्रदान किया, वह मेरे लिये वरदान से कम नही है।

 

राजा दशरथ के बहुत आग्रह करने पर कैकेयी ने यह कहकर बात टाल दी किजब आवश्यकता होगी मांग लूंगी।राम के युवराज बनने के समय दासी मंथरा द्वारा भ्रमित और प्रेरित महारानी कैकेयी को पूर्व के इन दोनों वरदानों की स्मृति दिलाई जाती है और कैकेयी राम की जगह भरत को युवराज बनाने तथा राम को चौदह वर्ष का वनवास भोगने-ये दो वरदान मांगती है। कैकेयी पर ये दो वरदान ही अभिशाप बन कर छा गये और उसके पीछे सारे गुण छिप गये। वह आजीवन पश्चाताप की आग में जलती रही, फिर भी उसकी छवि एक क्रूर हृदया विमाता के रूप में ही लोगों के सम्मुख रखी गयी। उसका वीरांगना व मातृत्व का रूप ओझल ही रहा। इस एक कृत्य से कैकेयी का राजपूत वीरांगना का उज्ज्वल स्वरूप आज तक कई लोगों की दृष्टि से ओझल रहा है। जिस पर विस्तार से प्रकाश डालने की आवश्यकता  है ।

 

 

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