उर्मिला

on Monday 27 June 2016
मिथिला नरेश सीरध्वज जनक की महारानी सुनयना की कोख से राजकुमारी उर्मिला का जन्म हुआ। जनक दुलारी  सीता की यह  छोटी  बहन थी।   सीता का विवाह राम के साथ हुआ उस अवसर पर उनके छोटे भ्राता लक्ष्मण के साथ उर्मिला  की शादी हुई।  विवाह के उपरांत अयोध्या में आगमन हुआ।  कुछ ही दिन  पश्चात  जब राम को युवराज घोषित किया गया तो महारानी कैकई ने अपने पुत्र भरत को राम के बदले युवराज बनाने और राम को 14 वर्ष का बनवास देने के दो वचन राजा दशरथ से मांगे।   राजा दशरथ वचनबद्ध थे।  राम ने सहर्ष वन जाना स्वीकार कर लिया।  राम के साथ उनकी पत्नी सीता भी गई।  वनवास की आज्ञा केवल राम को हुई थी किंतु भ्राता प्रेम के कारण  लक्ष्मण भी राम के साथ वनगमन को तैयार हुये। राम के बहुत समझाने पर भी लक्ष्मण  पर  कोई असर नहीं हुआ।
अपनी नव परिणीता  का परित्याग कर लक्ष्मण वन को प्रस्थान कर गए। जनक दुलारी सीता भी अपने पति के चली गई, सीता की भांति वह भी यदि अपने पति लक्ष्मण के साथ वन को गई होती तो उसे पति सेवा का अवसर मिलता उनका सान्निधय भी मिलता तो उसे संतोष प्राप्त होता। उर्मिला के पति किसिके कहने से वन को नहीं गए। स्वेच्छा से पिता और माता तुल्य अपने बड़े भाई और भाभी की सेवा के लिए वन मे गये थे। यदि वह स्वय उनके साथ जाती थी तो उनके कृतव्य पालन मे बढ़ा पड़ती। अपने पति के कार्य मे किसी प्रकार का व्यवधान आए ये बात पतिव्रता नारी के लिए असह्य हुआ करती है। उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और लक्ष्मण के विरह मे घर रहकर 14 वर्ष बिताए।


कितना अनुपम त्याग था इस क्षत्राणी उर्मिला का जिसने अपने सारे सुखों को तिलांजलि दे दी। सीता को अपने पति का संग पप्राप्त हुआ, यान संतोष था किन्तु उर्मिला की वेदना और पीड़ा का पार नहीं था। ऐसी विकट घड़ी मे वह अकेली थी,कोई उसका संबल और सहारा नहीं था। पति वियोग मे चौदह वर्ष की लंबी अवधि तक विरह की भयंकर आग  में झुलसना उसने सहर्ष स्वीकार किया पर अपने पति के कर्तव्य पथ मे बाधा बनना उचित नई समझा। प्रात: स्मरणीय अंगदऔर चन्द्र्केतु की जननी उर्मिला का यह बेमिसाल त्याग आज भी भारतीय नारी का एक अनुपम आदर्श बना हुआ है ।
बाह्य आक्रमणों से अधिक भयंकर कष्टकर होता है आंतरिक वेदना को झेलना। इस अंतरवेदना की आग को उर्मिला ने जिस भांति पिया उसका तो कोई सानी नहीं।
नहीं मांगती प्राण प्राण में , सजी कुसुम की क्यारी
स्वप्न स्वप्न मे गूंज सत्य की , पुरुष पुरुष मे नारी  ( रामधारी सिंह दिनकर –वेणु वन पृ. 9 )
पुरुष स्त्री को  शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है । पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है – हजारीप्रसाद दिवेदी (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.84)
 नारी की सफलता पुरुष को बांधने में है , सार्थकता उसे मुक्त देने में। - – हजारीप्रसाद दिवेदी (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.91)

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-         डा.विक्रम सिंह राठौड़ (राजपूत नारियां )
 

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