जना

on Saturday 2 July 2016
माहिष्मती के राजा नीलध्वज की महारानी जना वीर प्रवीर की जननी थी। प्रवीर ने चक्रवर्ती युधिष्ठिर के अश्व को माहिष्मिती नगरी की सीमा में प्रवेश करते ही पकड़ लिया। अश्व पकड़ने का समाचार पाकर नीलध्वज ने अपने पुत्र प्रवीर को बुला कर डांटते हुए कहा-प्रवीर तुमने अज्ञानतावश जिस अश्व को पकड़ा है उसे छोड़ दो। वह अश्व युधिष्ठिर का है जो चक्रवर्ती महाराजा हैं, अर्जुन जैसे उनके भाई हैं, जिनसे तू युद्ध करने का दुस्साहस नहीं कर सकता है। तुमने यदि अश्व को नहीं छोड़ा तो तुम मेरी तथा समस्त शूरों की मृत्यु का कारण बनोगे। सारा राज्य नष्ट हो जायेगा। अतः अब भी समय है, मेरी सलाह मानो और अपनी मूर्खता छोड़ो।

 अपने पिता की बात सुनकर प्रवीर दुखी हुआ और असमंजस में पड़ गया कि मैं अब क्या करू? अश्व यदि नहीं पकड़ा होता तो और बात थी पर अब पकड़कर उसे छोड़ना कायरता का परिचय देना है। उसने अपनी मनःस्थिति माता जना को बतायी। उस तेजोमयी क्षत्राणी ने अपने पुत्र को दुविधा से उबारा। उसे अपने कर्त्तव्य पथ पर नि:संकोच बढ़ने हेतु प्रोत्साहित करते हुए कहा- बेटा! तुमने यह जो राजपूतोचित कार्य किया है, वह ठीक है। राजपूत पुत्र मृत्यु से भयभीत नहीं हुआ करते। युद्ध में मरकर राजपूत वह गति पाता है जो योगी को प्राप्त होती है। चुनैौती पाकर कोई वीर भला कैसे शान्त रह सकता है। बेटे तूने आज मेरे दूध की लाज रख ली। मैं तुझ-सा पुत्र पाकर सचमुच आज धन्य हुई हूं। जा तू युद्ध के लिए तैयार हो तेरे पिता ने जो कुछ कहा उसका बुरा मत मान, अपने कर्तव्य का निर्वाह कर।” –

 
महारानी जना ने इसके पश्चात् अपने पति राजा नीलध्वज को खरी-खरी सुनाते हुए कहा-महाराज! लगता है, आपके रक्त में राजपूत के योग्य उष्णता शेष नहीं बची। आप में यह भीरूता कैसे व्याप्त हो गयी। अर्जुन के नाम से इतने भयभीत क्यों हो रहे हैं। पुत्र ने जिस अश्व को पकड़ा है उसे अर्जुन को सौंपकर अपने प्राण बचाइये, अपना राज्य बचाईये, इसी में आप अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं तो अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कीजिये।

 
अपनी रानी जना की व्यंग्यपूर्ण बातें सुनकर राजा नीलध्वज ने बताया-मैं भीरू नहीं हूं। राजपूत का क्या कर्तव्य होता है, वह मुझे ज्ञात है। अर्जुन यदि अकेला अश्व के साथ होता तो कोई बात नहीं पर मेरे आराध्य श्रीकृष्ण भी तो साथ है, उन पर शस्त्र प्रहार कैसे कर सकता हूँ।

जना ने प्रत्युत्तर में कहा-राजपूत के लिए भगवान् ने जो धर्म निश्चित कर दिया है उसका पालन ही अपने आराध्य की सच्ची आराधना है। क्षात्र-धर्म का परित्याग कर यदि आप अपने आराध्य को सन्तुष्ट करने की आशा रखते हैं तो यह व्यर्थ है। आपको अपने धर्म पर अविचल देखकर स्वयं श्रीकृष्ण प्रसन्न और सन्तुष्ट होगे। आज उन्हें अपने भक्त के बाण पुष्पों से भी ज्यादा कोमल प्रतीत होगें। आप संशय का त्याग कीजिये और आपके आराध्य जो पूजा ग्रहण करने आये हैं, उन्हें उसी पूजा अर्थात् युद्ध से सेवित कर कृतकृत्य होइये।

 
अपनी रानी जना के प्रेरणादायी वचनों से राजा नीलध्वज बड़े प्रभावित हुए। उन्हें अपनी पत्नी की बात सत्य प्रतीत हुई। अब उन्होंने विचार बदल कर युद्ध की घोषणा कर दी। युवराज प्रवीर के नेतृत्व में माहिष्मती की सेना ने घनघोर युद्ध किया और युवराज प्रवीर अर्जुन से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। अर्जुन ने युद्ध रोक दिया। राजा नीलध्वज अर्जुन से जाकर मिलता है और अर्जुन को अश्व उपहार रूप में भेंट करता है। महारानी जना, जो राजपूतत्व की साक्षात् मूर्ति थी, इस अपमान को कैसे सहन कर सकती थी कि उसके पुत्र का शव तो अभी रणभूमि में पडा है और उसके पिता उसका प्रतिशोध लेने की बजाय शत्रु का स्वागत कर रहे हैं, उपहार प्रदान कर रहे हैं। राजभवन से निकलकर वह सीधी गंगा के किनारे पहुँची और उसकी गोद में अपने अपको समर्पित कर अपनी हृदयाग्नि को शान्त किया।

 

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