वसुदेव
के कुल १८ पत्नियां थी, उसमें
रोहिणी भी एक थी। जब क्रूर कंस ने वसुदेव और देवकी को कारागार में बन्द कर दिया तो
रोहिणी बड़ी व्याकुल हुई। कारागार में भी इस पतिपरायणा ने अपनी पति-सेवा जारी रखी।
जब देवकी के एक-एक कर छः पुत्र कस ने मार दिये और सांतवा गर्भ रहा तो रोहिणी के भी
गर्भ के लक्ष्ण देख वसुदेव को चिन्ता हुई कि कहीं कस देवकी की भांति शंकावश रोहिणी
के पुत्र को भी न मार दें। इस भय से रोहिणी को उन्होंने अपने भाई व्रजराज नन्द के
यहां गुप्त रूप से भेज दिया। नन्द के घर में रहते हुए ही श्रावणी पूर्णिमा को कृष्ण
जन्म से आठ दिन पूर्व रोहिणी के गर्भ से बलराम का जन्म हुआ।
बलराम
के जन्म की बात कस के भय से बिल्कुल गुप्त रखी गयी। नन्द के घर में किसी प्रकार की
कमी नहीं थी। सब बातों की सुविधा थी तथा नन्द और यशोदा ने उसे बड़े आदर भाव के साथ
रखा। फिर भी पतिव्रता रोहिणी को पति से वियोग का दुख सालता रहा। पुत्र का मुख देख
वह अपना दुख कुछ समय के लिए अवश्य भूल जाती परन्तु रह-रहकर भीतर जब भी पति की
स्मृति जाग उठती वह व्याकुल हो जाती। कृष्ण का जन्म होने के बाद वह कृष्ण और बलराम
दोनों की बाल क्रीड़ाओं में अपना दुख भूलने का प्रयत्न करती।
जिस
प्रकार सीता ने राम के वियोग में एकाकी जीवन बिताया उसी प्रकार रोहिणी अपने पति से
साढ़े ग्यारह वर्ष पति-वियोग में एकाकी जीवन बिताया। अपने दोनों बालकों बलराम और
कृष्ण की परवरिश में लगी रही और यह सब कार्य कस से छिपकर गुप्त रूप से बड़ी चतुरता
के साथ किया। इसके पश्चात् वकृष्ण द्वारा जब कंस का वध होता है,
वसुदेव देवकी कारागार से बन्धन मुक्त होते हैं
तब कहीं जाकर एक लम्बे अन्तराल के बाद वह अपने पति से मिलती है।
उसके जीवन में सारे अधिंयारे छंट कर फिर से
नये प्रभात का प्रारम्भ होता है।
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