मीरां

on Thursday 14 July 2016
मीरां मेड़ता के राव दूदा के पुत्र रत्नसिंह की पुत्री थी। बचपन में ही माता का देहान्त हो जाने के कारण मीरां का लालन-पालन राव दूदा के पास मेड़ता में ही हुआ। राठौड़ों की मेड़तिया शाखा में जन्म लेने के कारण मीरां मेड़तणी के नाम से प्रसिद्ध हुयी। अपने चाचा वीरमदेव के पुत्र जयमल के साथ उसका बचपन बीता। इन दोनों में प्रारम्भ से ही ईश्वर-आराधना और भक्ति के संस्कार पैदा हो गये थे, अतः जयमल प्रसिद्ध भक्त हुआ और मीरां भक्तिमति।

मीरां का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र राजकुमार भोज के साथ हुआ था। वह मेवाड़ की राजरानी बनी, फिर भी अपने आराध्य कृष्ण के प्रति उसकी भक्ति अटूट बनी रही। कृष्ण को ही उसने पति मान रखा था और रात दिन उसी मोहन मुरली वाले को रिझाने में लगी रहती थी। भोज की मृत्यु के पश्चात् मीरां पर उसके ससुराल वालों ने बहुत जुल्म ढाये। तरह-तरह से दुख देकर उसे परेशान किया गया। इतना ही नहीं, उस पर कुल-कलंकिनी इत्यादि आक्षेप लगाये और वे असह्म हो गये तो एक दिन मीरां ने राजमहलों का परित्याग कर दिया। उसके भजन-कीर्तन से यदि मेवाड़ के राजवंश की अपकीर्ति होती है तो उसने अपने आपको उससे अलग कर दिया और श्याम के रंग में रंगी वह मीरां लोक-लाज, कुल-मर्यादा सबका परित्याग कर अपने गिरधर गोपाल के चरणों में समर्पित हो गयी।

मीरां राजपूत-नारी के साहस का जाज्वल्यमान उदाहरण है। जिस युग में राजपूत नारी पर्दे की पुतली के समान थी, उसने अपने आराध्य गिरधर गोपाल की भक्ति में, मगन हो, जगह-जगह घूम-घूम कर गोविंद के गुण गाये। समाज के बंधनों को एक ही झटके में तोड़ने वाली उस साहसी महिला की उस समय बड़ी बदनामी हुई, पर मीरां ने तोआ बदनामी लागै मीठीकह के उसे भी सहजता से स्वीकार कर लिया। मध्य युग की राजपूत नारी का आदर्श-सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर करना या सती होनासिर्फ रह गया था। उसने भिन्न दिशा में सोचने को उसे मजबूर किया और उसने भक्ति के अनुसरण से अपने जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुंचने का नवीन मार्ग सुझाया।

मीरां ने जो मार्ग चुना वह सहज नहीं था, उसे कठिन अग्नि परीक्षाएँ देनी पड़ी। मेवाड़ का महाराणा विक्रमादित्य, जो मीरां का देवर था, उसने मीरां को भिन्न-भिन्न तरीके से कष्ट दिया, यहां तक कि वह नराधम मां समान अपनी भाभी के प्राणों का ग्राहक बन गया। मीरां के प्राणों को हरने के लिए विष का प्याला और काला नाग भेजा गया पर उस कालजयी पर कुछ प्रभाव नहीं हुआ। मेवाड़ से प्रस्थान करते समय मीरां को उसने रोकने का प्रयास किया पर इसमें भी सफल नहीं हुआ। भक्ति के विरल पथ पर अग्रसर होने वाली मीरां कब तक रुक सकती थी। उसे संसार से विरक्ति हो गयी थी और और कृष्णमयी मीरां का जब घर, परिवार, सारा जग दुश्मन हो गया तब उसे, अपने सांवरिये का ही सहारा था, अपने प्रिय गोपाल का-मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

तीर्थाटन को निकली मीरां विभिन्न स्थानों पर घूमती हुई ब्रज-भूमि के दर्शन करने गयी, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी अद्भुत लीलाएँ रचीं। ब्रज भूमि में सत्संग करते कई दिन बिताये। एक दिन मीरां प्रसिद्ध भक्त जीवगोस्वामी से मिलने गई तो उन्होंने मिलने से यह कहकर इन्कार कर दिया किमैं स्त्रियों से नहीं मिलता।मीरां ने कहलवाया-मैं तो ब्रज में एक ही पुरुष कष्ण को जानती हूँ, यह दूसरा पुरुष कहां से आ गया!इतना सुनते ही जीवगोस्वामी स्वयं मीरां से मिलने नंगे पांव दैौड़े। ब्रजधाम से मीरां द्वारका आई और वहां रणछोड़ के सम्मुख नृत्य-कीर्तन व भजन में मग्न रही। एक दिन इसी प्रकार नृत्य करते करते अपने आराध्य की मूर्ति में समा गई। मूर्ति में मीरां का चीर बगल में लटका हुआ है और यह मूर्ति गुजरात के प्रसिद्ध धाम डाकोर जी में आजकल विद्यमान है।

मीरां के पदों की सरसता, सहजता और अन्तर्निहित वेदना सर्वविदित है। मीरां द्वारा रचित एक एक पंक्ति उसकी भक्ति-भावना से ओतप्रोत है और सुहृदय पाठकों को तरंगित किये बिना नहीं रहती। उसके पद आज हिन्दुस्तान भर में गाये जाते हैं मरू-मंदाकिनी मीरां की भक्तिमयी भावधारा से केवल मारवाड़ और मेवाड़

ही नहीं, पूरा भारत देश आप्लावित हो धन्य हो गया।

 

 

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