शकुन्तला

on Sunday 3 July 2016
एक बार राजा दुष्यन्त शिकार को निकले। मृग का पीछा करते हुए वे बहुत दूर निकल गये। मृगया के उद्देश्य से आश्रम में प्रविष्ट हुए राजा दुष्यन्त का एक आश्रमवासी ब्रह्मचारी ने अभिवादन करते हुए निवेदन किया-"राजन्! यह महात्मा कण्व का आश्रम है, मृगया यहां वर्जित है। इस तपोभूमि में सभी प्राणी अभय है, आइए आप ऋषि का आतिथ्य स्वीकार करें।राजा दुष्यन्त ने ब्रह्मचारी का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया।

महर्षि कण्व आश्रम में नहीं थे, वे सोमतीर्थ गये हुऐ थे। आश्रम पर उनकी पालित पुत्री शकुन्तला ने अतिथि राजा दुष्यन्त का स्वागत किया और मधुर कन्द तथा फल आहार हेतु प्रस्तुत किये। मृगया की थकान से थका-हारा राजा दुष्यन्त शकुन्तला के मधुर अतिथि-सत्कार से सन्तुष्ट और प्रभावित हुआ, साथ ही शकुन्तला के सैौन्दर्य पर मुग्ध भी। इसलिए आतिथ्यग्रहण के उपरान्त दुष्यन्त ने शकुन्तला का परिचय पूछते हुए कहा-भदे तुम कौन हो? तुम मुनि कन्या तो नहीं जान पड़ती।

 
शकुन्तला ने अपना परिचय देते हुए कहा-मैं राजर्षि विश्वामित्र की पुत्री हूं। मेरा जन्म होते ही मेरी माता मेनका ने परित्याग कर दिया था। जंगल में नदी के किनारे शकुन्त पक्षियों द्वारा छाया किये हुऐ मुझे महर्षि कण्व ने देखा और दयावश उठाकर आश्रम में ले आये। महर्षि ने मुझे सर्वप्रथम शकुन्त पक्षियों से घिरी हुई पाया था, उसी की स्मृति में मेरा नाम शकुन्तला रखा। महर्षि कण्व ने एक पिता की भांति पुत्रीवत् मुझे बड़े स्नेह और प्रेम से पाला है।

शकुन्तला से परिचय प्राप्त कर और यह जानकर कि वह राजर्षि के कुल में उत्पन्न हुई है, उस ओर अधिक आकृष्ट हुए और अपना प्रणय निवेदन करते हुए अपनी महारानी बनने का प्रस्ताव शकुन्तला के सम्मुख रखा। शकुन्तला ने महात्मा कण्व के आने तक इन्तजार करने की बात कही पर राजा दुष्यन्त प्रतीक्षा करने के इच्छुक न थे। उन्होंने शकुन्तला को समझाया कि महात्मा कण्व तुम्हारे निर्णय से असन्तुष्ट नहीं होगे और फिर राजकन्याएं तो स्वयं ही अपने पति को चुना करती हैं, यह कोई अनुचित कार्य नहीं है। शकुन्तला ने, जो स्वयं राजा दुष्यन्त के प्रति

आकृष्ट हो चुकी थी, अधिक प्रतिवाद नहीं किया और राजा दुष्यन्त का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया। गन्धर्व विधि से दोनों ने विवाह कर लिया। राजा दुष्यन्त कुछ काल तक आश्रम में रहकर पुनः राजधानी को लौटा। जाते समय शकुन्तला को यादगार स्वरूप अपनी अंगूठी प्रदान की और वहां जाते ही शीघ्र उसे बुलाने का आश्वासन भी दिया।

एकान्त और खाली समय में अपने प्रिय का अनायास स्मरण होना स्वाभाविक ही है। शकुन्तला की भी अब यही स्थिति थी। यदा-कदा उसे अपने प्रीति पात्र दुष्यन्त की स्मृति हो आती तब वह अपने पति के ध्यान में पूरी तरह खो जाती। एक दिन वह दुष्यन्त के ध्यान में निमग्न हुई बैठी थी कि आश्रम में दुर्वासा ऋषि आये। शकुन्तला ने उनका यथेष्ट सत्कार नहीं किया फलतः ऋषि ने क्रोध करके उसे शाप दे दिया कि जिसके ध्यान में निमग्न होकर तू बैठी है और तूने उठकर मेरा स्वागत नहीं किया है, वह तुझे भी भूल जायेगा। आश्रमवासियों के निवेदन पर शाप के परिहार हेतु बताया कि किसी चिन्ह के दिखलाने से उसे पुनः तेरा स्मरण हो जायेगा।

महर्षि कण्व जब पुनः अपने आश्रम लौटे तो उन्हें शकुन्तला के गन्धव विवाह का सारा हाल ज्ञात हुआ। महर्षि ने विवाहिता शकुन्तला को अपने आश्रम में रखना उचित नहीं समझा और यह सोचकर कि राजा राज-काज में अधिक व्यस्त होने के कारण इसका ध्यान भूल गये हैं अतः अपने शिष्यों के साथ शकुन्तला को राजा दुष्यन्त के पास भेजा। राजा दुष्यन्त के सम्मुख राज सभा में कण्व मुनि के शिष्य उपस्थित हुए और शकुन्तला के आगमन की सूचना दी। दुर्वासा के शाप के कारण दुष्यन्त सब कुछ भूल गया। शकुन्तला को देखकर भी उसने पहचानने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, दुष्यन्त ने भरी सभा में शकुन्तला का यह कहकर अपमान किया कि महारानी बनने के लोभ में तुम यह सब जो कर रही हो वह व्यर्थ है। मैंने तुम्हें कभी देखा भी नहीं, फिर व्यर्थ ही तुम मुझे कलंकित क्यों कर रही हो।

शकुन्तला ने बहुत याद दिलाने की कोशिश की और यह भी कहा कि आपने प्रेम के चिन्ह स्वरूप मुझे अपनी मुद्रिका भी दी थी। अपनी प्रेम की यादगार की निशानी शकुन्तला ने दिखानी चाही पर देखा कि हाथ में वह अंगूठी नहीं है। वह तो मार्ग में शचीतीर्थ में आचमन करते समय गिर गयी थी। मुद्रिका तो कहीं गिर गयी पर आपको अपने शब्द तो याद होंगे। शकुन्तला ने कई प्रसंगों का उल्लेख किया परन्तु दुष्यन्त पर उसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ा। दुष्यन्त ने  कहा-मुद्रिका यदि तुम दिखाओं तो तुम्हारा विश्वास किया जा सकता है वस्त्र अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कुलटा स्त्रियें ऐसी बातें प्रायः गढ़ा ही करती हैं।

अपने पति द्वारा अपमानित और परित्यक्त शकुन्तला पुनः वन को लौ चली। उसने आत्मदाह करने की सोची किन्तु गर्भस्थ शिशु का ध्यान कर इस विचार का त्याग किया। अपनी पुत्री को दुखी देख मेनका उसे स्वर्ग में ले गयी।

शचीतीर्थ में शकुन्तला की जो अंगूठी आचमन करते समय अंगुली से निकल गयी थी उसे एक मछली ने निगल लिया था। यह मछली जब मछुआरे द्वा पकड़ी गयी और उसने उसको काटा तो उसके पेट में यह अंगूठी प्राप्त हुई। अंगूठं लेकर वह जैौहरी के पास गया। जैौहरी ने अंगूठी पर राजा दुष्यन्त का नाम देखा तो अंगूठी सहित मछुआरे को कोतवाल के हवाले कर दिया। कोतवाल ने, अंगू जिस प्रकार प्राप्त हुई वह सारा वृत्तान्त सुनाया। ऋषि के शाप का प्रभाव अब समाप्त हो चुका था। यह अंगूठी देखते ही उसे शकुन्तला का स्मरण हो आया औ उसका जो भरी सभा में अपमान किया था, उससे राजा के मन में बड़ी उत्पन्न हुई।

देवासुर संग्राम के समय इन्द्र ने राजा दुष्यन्त से सहायता मांगी। स्वर्ग में जाकर दुष्यन्त ने असुरों को परास्त किया। वहां से पुनः अपनी राजधानी लौट रहा था उस समय हेमकूट पर्वत पर कश्यप ऋषि के दर्शनार्थ रुका। वहां सिंह-शावकों के साथ खेलते एक बालक को देखा। राजा को बड़ा विस्मय हुआ। उसने उसक नाम परिचय पूछा। सर्वदमन ने अपना तथा अपनी माता शकुन्तला का नाम बताया। दुष्यन्त और शकुन्तला पुनः मिले। राजा दुष्यन्त अपने पुत्र और पत्नी को लेकर अपनी राजधानी लौटा। यही सर्वदमन शकुन्तला पुत्र आगे चलकर पराक्रम  और यशस्वी नरेश भरत के नाम से विख्यात हुआ।


 

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