रानीबाई

on Monday 18 July 2016
सिंध के शासक दाहिर के सयम से हिन्दुस्तान पर यवन आक्रमण की शुरूआत होती है। बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार सन् ७१२ ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध के राजा दाहिर पर चढ़ाई की। दाहिर ने यवन आक्रमणकारी का डटकर मुकाबला किया। राजपूत सैनिकों ने भयंकर युद्ध किया। दाहिर स्वयं रणभूमि में शत्रु से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
 
पति की मृत्यु के पश्चात् दाहिर की वीर पत्नी रानीबाई (जिसको लाडीके नाम से भी जाना जाता है) ने युद्ध की कमान संभाली और यवनों से संघर्ष जारी रखा। राजा दाहिर की मृत्यु के उपरान्त भी अपने वीर सैनिकों को हतोत्साहित नहीं होने दिया। उनके हृदय में उत्साह और वीरता का संचार कर उनके मनोबल को ऊंचा बनाये रखा। राजपूत वीर यवन आक्रान्ताओं पर दुगने जोश में टूट पड़े। पहले तो आभास हुआ कि राजपूत सैनिक विजय प्राप्त कर लेंगे किन्तु यवन आक्रान्ताओं के सामने वे अल्प संख्या में होने के कारण अधिक समय तक टिक नहीं सकते।

राजमहिषी रानीबाई ने युद्ध का परिणाम अपने प्रतिकूल देख किले के भीतर की समस्त नारियों को एकत्र कर अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए कहा-यवन युद्ध में विजय की ओर अग्रसर हो रहे हैं। शीघ्र ही इस किले पर उनका अधिकार हो जायेगा। इससे पहले कि शत्रु का इस किले पर अधिकार हो हमें अपनी स्वाधीनता और सतीत्व की रक्षा के लिए वीर नारियों की भांति अपने कर्तव्य का शीघ्र पालन करना चाहिए।

 रानीबाई की बात का सभी राजपूत रमणियों ने समर्थन किया और विशाल अग्निकुण्ड तैयार किया गया। सर्वप्रथम रानीबाई जलती ज्वालाओं के बीच कूद पड़ी और अन्य सभी राजपूत नारियों ने उसका अनुसरण किया। यवन आक्रान्ताओं के हाथ में पड़कर सतीत्वहीन दासता का जीवन बिताने की अपेक्षा राजपूत रमणियों को चिता की लपटों का आलिंगन कर अग्नि में अपना सर्वस्व अर्पण कर देना प्रिय रहा है। रानीबाई इसी आदर्श का निर्वाह कर सतियों की पथप्रदर्शिका बनी।

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