शिवि
नरेश की कन्या का नाम तारा था। शिवि देश और वहां के राजा की. पुत्री होने के कारण
लोग इसे शैव्या नाम से भी पुकारते थे। शैव्या जब विवाह योग्य हुई तो उसका विवाह
सत्यवादी महाराजा हरश्चिन्द्र से हुआ और वह शैव्या'
से (तारा से) महारानी
तारामती बनी। उसकी कोख से रोहित नाम का राजकुमार उत्पन्न हुआ। तारामती पतिव्रत
धर्म का पालन करने वाली अद्भुत राजपूत नारी थी। उसने अपना अस्तित्व ही पति में
विलीन कर दिया था। महाराजा हरिश्चन्द्र का सुख उसका सुख था और उनका दुख उसके लिए
भी दुख था।
हरिश्चन्द्र
अपनी पत्नी के ये उद्गार सुन कर अत्यन्त प्रसन्त हुये। उनके मन पर छायी उदासी मिट
गई और चेहरे पर जो चिन्ता के भाव उभर आये थे समाप्त हो गये। वे मन-ही-मन तारामती
के सद्गुणों और सद्वचारों की प्रशंसा करने लगे। दूसरे दिन सवेरा होते ही
विश्वामित्र आये और बोले-“यह राज्य मुझे दे दिया है तो अब तुम जहां तक
मेरा प्रभुत्व है वहां से निकल जाओ और हां ये शरीर पर तुम्हारे जो बहुमूल्य
वस्त्राभूषण पहने हुए हैं उन्हें भी यहीं छोड़ दो। वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी
पत्नी एवं पुत्र को साथ लेकर शीघ्र यहां से चले जाओ।”
राजा
हरिश्चन्द्र बहुमूल्य वस्त्राभूषण उतार,
वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी
पत्नी तारामती और पुत्र रोहित के साथ रवाना हुए तो विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को
रोककर कहा कि-“मुझे राजसूय की दक्षिणा दिये बिना कहां जाते हो।” हरिश्चन्द्र
ने एक मास का समय मांगा। विश्वामित्र ने कहा-“तीसवें दिन यदि दक्षिणा नहीं दोगे तो मैं
तुम्हें शाप दे दूंगा।”
राजा
हरिश्चन्द्र आज एक गरीब और असहाय की भांति पैदल चले जा रहे थे। दो प्राणी-उनकी
प्राणप्रिय पत्नी तारामती और पुत्र रोहित उनके साथ थे। महारानी तारामती, जिसकी
परिचर्या हेतु सैकड़ों परिचारिकाएँ रहती थी आज पैदल चल रही थी। सुकुमार बालक रोहित
अपनी मां की गोद से नीचे नहीं उतरना चाहता था। रानी को पैदल चलने का अभ्यास ना था, उसके
चेहरे पर थकान के चिन्ह स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे फिर भी हिम्मत के साथ हर कदम
आगे बढ़ाये जा रही थी। पति का अनुकरण करने का मन में सन्तोष था। ये तीनों प्राणी
विचरण करते-करते काशी नगरी में पहुंचे। विश्वामित्र काशी में ही थे। हरिश्चन्द्र
जब वहाँ पहुंचे तो उनसे भेंट हुई विश्वामित्र ने याद दिलाया-“राजन्!
आज तीसवां दिन है, मेरी दक्षिणा चुका दीजिए।”
हरिश्चन्द्र ने कहा-“मुनिवर
अभी आधा दिन शेष है, मैं शीघ्र आपकी दक्षिणा चुका दूंगा, अब
अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।”
राजा
रानी बहुत अधिक थक चुके थे। पैदल चलने व उपवास के कारण कृशकाय हो चले थे। राजपूत
होने के नाते भीख तो लेते नहीं थे,
पास पैसा भी नहीं था, कोई
काम धन्धा भी प्रारम्भ नहीं किया था। बालक रोहित भूख से छटपटा रहा था। अपने पुत्र
के लिए भोजन की व्यवस्था न करने वाला पिता विश्वामित्र की दक्षिणा कैसे चुकायेगा।
राजा के धैर्य की बड़ी कठोर परीक्षा चल रही थी। राजा इस उधेड़बुन में था की
सन्ध्या से पूर्व कैसे दक्षिणा के धन का प्रबन्ध किया जाय। वह प्रतिक्षण चिन्तातुर
होता जा रहा था।
अपने
पति की यह दशा तारामती से अब और अधिक समय तक देखी नहीं जा सकती थी। राजा की चिन्ता
का कारण उससे छिपा नहीं था। अश्रुपूरित नेत्रों और गद्गद कण्ठ से महारानी तारामती
ने कहा-“हे स्वामी आप चिन्ता छोड़िये और सत्य का पालन कीजिये।
नरश्रेष्ठ पुरुष के लिए सत्य की रक्षा से बढ़कर और कोइ धर्म नहीं है। जिसका वचन
निरर्थक हो जाता है उसका स्वाध्याय,
दान आदि सम्पूर्ण कर्म
निष्फल हो जाते हैं। हे आर्य मुझसे पुत्र का जन्म हो चुका है। श्रेष्ठ पुरुष
स्त्री का संग्रह पुत्र के लिए करते हैं,
वह फल आपको प्राप्त हो चुका
है, अतः आप दक्षिणा चुकाने के लिए मुझे किसी के हाथों बेच
दीजिये।”
रानी
की यह बात सुनकर हरिश्चन्द्र को बड़ा आघात लगा और वह मूर्छित हो गये। अपने पति की
यह हालत देख तारामती भी मूर्छित होकर गिर पड़ी। दोनों को इस प्रकार गिरा देख
राजकुमार रोहित, जो भूख से पीड़ित था,
कभी अपनी मां और कभी अपने
पिता को भोजन देने के लिए पुकार-पुकार कर जगाने का प्रयास कर रहा था। राजा और रानी
की मूच्छ दूर हुई तब सूर्यास्त होने में कुछ ही समय कम था ।
तारामती
ने पुनः कहा-“हे स्वामी समय अब बहुत कम बचा है, मैने
जो प्रार्थना की है, वही कीजिए अन्यथा आपको शाप से पीड़ित होना पड़ेगा। आप मुझे
अपने गुरु की दक्षिणा चुकाने के लिए बेच रहे हैं,
कोई दुर्गुणों के वशीभूत
होकर यह कार्य थोड़े ही कर रहे हैं। इसमें इतना सोचने और दुखी होने की क्या बात
है।”
राजा
किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ बैठा था। तारामती बार-बार आग्रह कर रही थी। आखिरकार पत्नी
द्वारा सुझाये हुए उपाय को ही उसे स्वीकार करना पड़ा। एक वृद्ध ब्राह्मण ने दासी
का कार्य करने हेतु रानी को खरीदा। हरिश्चन्द्र के जीवन का यह क्रूरतम अनुभव था, अपने
हाथों अपनी पत्नी को बेचना। पति से अलग होते समय तारामती फूट-फूट कर रो रही थी, हरिश्चन्द्र
की आंखों से आंसुओं का शैलाब थमने का नाम न ले रहा था। रोहित मां का आंचल थामे
उससे लिपटा हुआ रो रहा था। ब्राह्मण के कहने पर भी वह मां को छोड़ नही रहा था।
रानी तारामती ने ब्राह्मण से निवेदन किया-“आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है, इतनी
कृपा और कर दीजिए, इस बालक को भी खरीद लीजिए। मुझ अभागिन का यह पुत्र है, मैं
इसकी जननी हूँ, इसके बिना मैं मन लगाकार आपका कार्य नहीं कर पाऊंगी।”
एक
दिन हरिश्चन्द्र शमशान में पहरा दे रहे थे कि एक स्त्री की करुण पुकार उसे सुनायी
दी जिसका पुत्र सांप के काटे जाने से मर गया था,
उसे जलाने को लायी थी, उस
भाग्यहीना के पास कफन तक नहीं था। वह स्त्री और कोई नहीं स्वंय हरिश्चन्द्र की
पत्नी तारामती थी और यह बालक रोहित का शव था। तारामती के विलाप से हरिश्चन्द्र ने
यह सब जान लिया। हरिश्चन्द्र ने अपनी भी स्थिति स्पष्ट की पर तुरंत संभलकर तारामती
से कफन मांगा, उसके बिना अग्नि संस्कार संभव नहीं, क्योंकि
इस समय मैं रोहित का पिता नहीं, चाण्डाल का सेवक हूं और उसके कार्य हेतु
नियुक्त हूं।
तारामती
ने कहा कि-“स्वामी, मेरी स्थिति से आप अनभिज्ञ नहीं हैं, मैं
बिकी हुई दासी हूँ, कफन के पैसे मेरे पास नहीं है, तन
ढ़कने को एक ही साड़ी मेरे पास है,
इसमें से आधी अपने कलेजे के
टुकड़े रोहित के कफन हेतु देती हूं,
आधी से अपने तन को ढ़क कर
लाज की रक्षा करूंगी।”
समय
परिवर्तनशील है, सब दिन एक समान नहीं गुजरते। महाराजा हरिश्चन्द्र तारामती
जैसी पतिव्रता पत्नी और रोहित जैसा मनोहारी राजकुमार पाकर अपने आपको सौभाग्यशाली
समझते थे। उन्हें क्या पता थ कि उनकी यह हंसी-खुशी की दुनियां चन्द दिनों तक ही
रहेगी। एक दिन विश्वामित्र के मांगने पर अपना सारा राजपाट उन्हें दान कर दिया और
आकर अपनी महारानी तारामती से मिले। महाराज हरिश्चन्द्र को उदासीन और चिन्ताग्रस्त
देख पतिपरायणा तारामती व्यथित हुई और महाराज से इस उदासीनता का कारण पूछा। तब
महाराज हरिश्चन्द्र ने अपनी प्राण प्रिया को प्रत्युत्तर देते हुए कहा-“मैने
अपने राजपाट कादान मुनि विश्वामित्र को कर दिया है। अब मैं राजा नही हूं एक गरीब
हूं। मुझेअपनी चिन्ता नहीं है पर इस स्थिति में तुम्हें और रोहित को जो कष्ट होगा
वह मैं कैसे देख पाऊंगा, मन इसी चिन्ता से व्यग्र है।”
तारामती
ने कहा –“इस चिन्ता से व्यग्र होने की कोई बात नहीं, इस
पर तो उलटा प्रसन्न होना चाहिए। राज्य और धन कितने दिन रहने वाला है, आज
है और कल नहीं। यह शरीर जिसे हम कितने यत्नों से संभालते हैं फिर भी यह सदा नहीं
रहता। ये सब क्षणभंगुर चीजें हैं, इनमें मोह रख कर दुखी होना व्यर्थ है। संसार
में धर्म ही नित्य है अतः उसकी रक्षा करना ही जीवन की सच्ची सफलता है। धर्म की
रक्षा में प्राण भी चले जाये तो श्रेष्ठ और सार्थक है। राज्य के प्रपंच में पड़कर
आदमी ईश्वर को भूल जाता है और जिस उद्देश्य के लिए यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है
उसको ही विस्मृत कर अपना अहित कर बैठता है। “आप द्वारा राजपाट का दान देना तो मेरे लिए ज्यादा
खुशी की बात है क्योंकि अब तक आप राज-काज में अधिक व्यस्त रहते थे किन्तु अब आप
मेरे अधिक निकट रहेंगे। मुझे पति सेवा का ज्यादा अवसर मिलेगा। पतिव्रता के लिए पति
का अखण्ड प्रेम और सत सौभाग्य तीन लोकों के राज्य से भी बढ़कर है।”
ब्राह्मण
ने तारामती के आग्रह पर रोहित को भी खरीद लिया। पत्नी और पुत्र को बेचने से जो धन
प्राप्त हुआ वह सारा विश्वामित्र को सौंप दिया फिर भी दक्षिणा में कुछ धन कम पड़
गया तो राजा ने स्वंय को चाण्डाल के हाथ बेच मुनि को दक्षिणा प्रदान की।
*
अनुकला सदा तुष्टा, दक्षा साध्वी विचक्षणा। एभिरेव गुणैयुक्त श्रीरिव स्त्री प
संशयः। सदा पतिके अनुकूल और सन्तुष्ट रहने वाली,
दक्ष, साध्वी
और बुद्धिमती स्त्री नि:सन्देह लक्ष्मी के समान होती है। -दक्षस्मृतिः
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