विदुला

on Sunday 3 July 2016
सौवीर देश की राजमाता को जब यह ज्ञात हुआ कि उसका पुत्र संजय युद्ध की विभीषिका से आतंकित और सिन्धुराज से पराजित होकर घर लौटा है तो वीर क्षत्राणी को अपने पुत्र का युद्ध से पलायन बहुत बुरा लगा। वीर माता के लिए यह असह्य था, वह अपने पुत्र को धिक्कारने लगी।

धिक्कार है तुझे ! कायरों की भांति युद्ध भूमि से पलायन कर अब तू घर लौटा है, तुझे डूब मरने के लिए कहीं चुल्लू भर पानी नहीं मिला। कुल कलंक तू अपने वीर पिता का पुत्र कहलाने का अधिकारी नहीं है। पुरुषत्वहीन तेरी कीर्ति नष्ट हो गयी है, अब तेरा जीवन व्यर्थ है। तू किस मुंह से मेरे सामने आया है, शीघ्र मेरी आँखों के सामने से हट जा। का पुरुष तू कैसा पुरुष है, जिसे प्राणों का भय हो, शत्रु के भय से रणभूमि से भाग खड़ा हो वह क्या पुरुष कहलाने का अधिकारी है। पुरुष तो वह है जो पराक्रमी हो, शत्रु का मुकाबला करने की हिम्मत और बुलन्द होंसला रखता हो, शत्रु के आघात पर प्रतिघात करने और अरि-मद-मर्दन करने की जो क्षमता रखता हो वही पुरुष है। स्त्री भी पृथ्वी पर हीन और अपमानित होकर नहीं रहना चाहती। तेरे जैसे कायर और कुल कलंक पुत्र को जन्म देकर मैं आज लज्जित हुई हूं। ऐसे पुत्र से तो मैं निःसन्तान भली थी। संजय शत्रु से पराजित होकर दुनियां में निन्दनीय और घृणित जीवन बिताने से तो श्रेष्ठ है तू देश की रक्षार्थ जब तक शरीर में शक्ति है शत्रु से युद्ध कर और युद्ध भूमि में प्राणोत्सर्ग करके सुयश का भागी हो।

संजय विदुला का इकलौता पुत्र था परन्तु वह भीरू स्वभाव का था। संजय अपनी माता को कहता है-मेरी मृत्यु से क्या तू सुखी होगी, मैं ही तो तेरा एक मात्र पुत्र हूं, मुझे खोकर तुम क्या हासिल कर लोगी। क्यों मुझे जानबूझ कर मैौत के मुंह में धकेल रही हो।

विदुला ने कहा-तुम वीर कुल में उत्पन्न हुए हो। इस कुल में किसी ने कभी याचना नहीं की। तेरा पूर्वज कभी भी किसी की कृपा का अभिलाषी नहीं बना। इस वशं में कभी भी किसी ने भयवश किसी के सम्मुख मस्तक नहीं झुकाया। उसी कुल में उत्पन्न हुआ तू याचक, कृपा-अभिलाषी और भय से शत्रु के सम्मुख नत मस्तक होगा। यदि तेरी नसों में इस पवित्र कुल का रक्त अब भी शेष है तो शत्रु के अनुग्रह का याचक बनने की अपेक्षा मृत्यु श्रेष्ठ है। राजपूत होकर तू शत्रु को मस्तक झुकायेगा। राजपूत निन्दित, अपमानित और दीन बन कर दीर्घ जीवन की अपेक्षा वीर, साहसी बन कर अल्पकालिक यशस्वी जीवन का अभिलाषी होता है। तू भी अपने कुल की यशस्वी परम्परा का अनुगामी बनकर अपना नाम उज्जवल कर ।

माता विदुला की फटकार सुनकर करुण स्वर में संजय ने निवेदन किया-मैया प्राणों के भय से मैं तेरी शरण आया हूं। तू मेरी जननी है फिर भी तेरे हृदय में मेरे प्रति थोड़ा भी वात्सल्य नहीं है क्या सभी माताएं इतनी कठोर हृदया होती हैं? तुझे अपने पुत्र के प्राण नहीं, मैौत पसन्द है। तुम मां होकर भी मेरे अमंगल की कामना कर रही हो।’’

विदुला ने अपने पुत्र के विचार सुनकर ओजपूर्ण वाणी में कहा संजय! मैं तेरी माता हूँ और माता से बढ़कर पुत्र का हित चाहने वाला जगत् में और कोई नहीं होता। मैं हमेशा तेरे मंगल की कामना करती रही हूँ और जो कुछ कह रही हूँ उसमें तेरी मंगलकामना ही निहित है। दुर्भाग्यवश तू उसे अमंगलकारी समझ रहा है। एक राजपूत नारी वीर माता होने में गैौरव का अनुभव करती है। राजपूतोचित परम्पराओं के पालन में ही तेरा मंगल है। कायर बन कर प्राणों के मोह से युद्ध स्थल से पलायन करके राजपूत कभी नहीं जीता। राजपूत विजयी होने के लिए ही जीवित रहता है। रणभूमि में मृत्यु का आलिंगन करना राजपूतों को सदा प्रिय रहा है। प्राणों का मोह छोड़ उज्ज्वल कीर्ति और कुल की मर्यादा की रक्षा कर, इसी में तेरा कल्याण है, इसी में तेरा मंगल है। उठ कायरता त्याग, प्राणों का मोह अपने वीरत्व, तेज और शैौर्य के बल पर शत्रुओं का मुकाबला कर। आत्मबल से विरोधियों को रौद कर उनका मद-मर्दन कर शत्रु से पीड़ित देश की प्रजा का रक्षण कर, यही वीर पुत्र का धर्म है। एक बार इस मार्ग का अनुसरण कर, मां की हार्दिक इच्छा को पूरी करके दिखला, फिर देखना कि वज से भी कठोर समझने वाली तेरी इस मां के हृदय में वीर पुत्र के लिए असीम वात्सल्य और स्नेह छिपा है।

 मां विदुला का एक-एक शब्द संजय को बाण की तरह गहरे तक भेद रहे थे। उसका डगमगाया आत्मबल, पैौरूष, तेज और शैौर्य पुनः जागृत हो जाता है। मां की इस वीरोचित भावनाओं को सुनकर उसकी कायरता समाप्त हो गयी, प्राणों का भय जाता रहा और उस सिंहनी के पुत्र ने सिंहनाद किया-बस मां अब बहुत हो। गया। मैं इसी क्षण युद्ध के लिए प्रस्थान करता हूँ, मुझे आशीर्वाद दे। विजयी होकर ही अब तेरे चरणों में मस्तक रखूगा या फिर रणभूमि में ही कटकर अपना जीवन सफल करूंगा।

माता विदुला की छाती गर्व से फूल गयी। अपने बेटे को कर्तव्य पालन की शिक्षा देकर गैौरवान्वित हुई। पथ से भटके हुए पुत्र को सही मार्ग-दर्शन प्रदान करने का उसे सन्तोष था। वीरोचित कर्म के प्रति पुत्र को सचेष्ट कर अपने मातृत्व को लज्जित होने से बचाया साथ ही पुत्र को अपने आदर्श की पालना हेतु कृत संकल्प कर कलंकित होने से बचाया। संजय ने जाकर सिंधुराज से भंयकर युद्ध किया। सिंधुराज को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा। विजय श्री के साथ संजय ने जब लौटकर अपनी मां के चारणों में मस्तक झुकाया। तो बाहें फैला कर विदुला ने उसे अपनी छाती से लगा लिया। उसकी आंखों में खुशी के आंसू छलक आये पर चेहरा ओज और गर्व से देदीप्यमान था।

> पुरुष ? तर्क का कठपुतला-भर स्त्री-असीम का अन्तःनिर्झर!  -अज्ञेय (चिन्ता, पु-५६)

0 comments:

Post a Comment