सुमित्रा

on Monday 18 July 2016
सुमित्रा राजा दशरथ की महारानी थी। राजा दशरथ की रानियों की संख्या के सम्बन्ध में मतभेद है पर उनकी प्रमुख तीन रानियों में सुमित्रा की गिनती होती है। पहली रानी कौशल्या पट्टरानी थी। सबसे छोटी रानी कैकयी सर्वाधिक प्रिय महारानी थी। और सुमित्रा सर्वाधिक कार्यकुशल महारानी थी। राजसदन के समस्त प्रबन्ध का निरीक्षण, दास दासियों की नियुक्ति, दान, पूजा-पाठ हेतु सामग्री प्रदान करना, आगन्तुकों व अतिथियों, दैनिक और नैमितिक उत्सवों, पर्वो, विशिष्ट अनुष्ठानों इत्यादि की व्यवस्था व आयोजन का भार सुमित्रा के कन्धों पर था। विविध भांति के अनेक कार्यों का सफल संयोजन करने में सुमित्रा दक्ष थी और यह उसी के बस का कार्य था। अपनी कार्यकुशलता व संयोजन शक्ति की विशिष्ट योग्यता के कारण सुमित्रा का नाम राजा दशरथ की तीन प्रधान महारानियों की सूची में तो आ गया किन्तु उसे जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। राजा दशरथ के प्रेम से वह उपेक्षित ही रही। उपेक्षितामहारानी सुमित्रा का अधिकांश समय पट्टरानी कौशल्या के साथ ही अधिक बीता करता था। और पट्टरानी की भी अपनी-सी स्थिति देख सुमित्रा ने कौशल्या के समीप रहना ही उचित समझा। सुमित्रा अपनी बड़ी सौत यानि महारानी कौशल्या का बहुत अधिक सम्मान भी करती थी। -

 सुमित्रा चतुर व निपुण होने के साथ साथ बुद्धिमान भी थी और अपनी निपुणता के कारण ही उसने कौशल्या व कैकेयी दोनों सैौतों के साथ अपने मधुर सम्बन्ध बनाये रखे। सुमित्रा दोनों की ही विश्वास पात्र थी। उसका प्रमाण इस उदाहरण से मिल जायेगा कि जब पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त हुआ और अग्नि द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो पट्टरानी कौशल्या को दिया गया। शेष आधा प्रिय रानी कैकेयी को दिया गया और जो चौथाई हिस्सा बचा था। वह शेष सभी रानियों में बांटना संभव नहीं समझा। राजा दशरथ ने उस चौथाई हिस्स के दो भाग करके एक कौशल्या और दूसरा कैकयी को प्रदान कर दिया गया और यह उनकी इच्छा पर छोड़ दिया कि वे चाहे जिसे यह भाग प्रदान कर सकती है। कौशल्या ने अपना यह

 

भाग सुमित्रा को दिया और कैकयी ने भी यह हिस्सा सुमित्रा को प्रदान किया। कौशल्या राम की और कैकेयी भरत की जननी थी। सुमित्रा की कोख से लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। इन सब में राम सबसे बड़े थे। उनसे छोटे भरत व भरत से छोटे लक्ष्मण और शत्रुघ्न। सुमित्रा विभिन्न कार्य सम्पादन में जितनी कुशल थी उतनी ही स्नेहमयी और ममतामयी भी थी। राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न इन चारों राजकुमारों का लालन-पालन व खेलकूद आदि का प्रबन्ध भी सुमित्रा ही किया करती थी। इतना ही नहीं, चारों राजकुमारों को सुमित्रा की गोदी में ही निद्रा आती थी। कौशल्या जब कभी पुत्र राम को अपने पास सुला लेती तो रात्रि में जागने पर राम उठ कर रोने लगते और सुमित्रा के पास जाने का इतना हठ करते थे कि रात्रि में कौशल्या को सुमित्रा के पास जाकर उसे सौंपना होता था। सुमित्रा की गोद में जाते ही राम चुप हो जाते थे। सचमुच सुमित्रा का स्नेह इतना अगाध और अनुपम था कि छोटे बालक राम और भरत अपनी मां से भी ज्यादा स्नेह और प्रेम विमाता (सुमित्रा) की गोद में अनुभव करते थे।

पिता की आज्ञा पाकर राम वनवास के लिए रवाना होते हैं, उस समय लक्ष्मण भी उनके साथ रवाना हुए। राम ने बहुतेरा समझाया फिर भी लक्ष्मण ने अपना निश्चय नहीं छोड़ा तब विवश हो राम ने माता सुमित्रा की आज्ञा लेने हेतु लक्ष्मण को उनके पास भेजा। सुमित्रा ने इस समय लक्ष्मण को जो आज्ञा और आशीर्वाद दिया उससे माता के विशाल हृदय का परिचय मिलता है।

 तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता राम सब भांति सनेही। अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइ दिवस जंह भानु प्रकासु। जाँ पे सीय रामु बन जाही। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं। गुरु पितु मात बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाई। वन गमन के समय लक्ष्मण को यही उपदेश देती है कि तुम राम और सीता, जो तुम्हारे माता-पिता के समान हैं, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न देना। चित्रकूट में सीता के उद्विग्न चित्त को सुमित्रा ही अपनी नीतिज्ञ बातों के आधार पर शान्त करने में सफल होती है। सुमित्रा के गैौरवमय हृदय का एक और उदाहरण दृष्टव्य है जब रणभूमि में लक्ष्मण आहत होकर मूच्छित हो जाता है और हनुमान द्वारा जब उसे यह खबर मिलती है तो उसके हृदय की विचित्र स्थिति हो जाती है। राम के लिए लक्ष्मण लड़ता हुआ गिरा, इसकी उसे प्रसन्नता है, पर अब राम वहां शत्रुओं के मध्य अकेला है, इससे उसे चिन्ता होती है और अपने दूसरे लाल शत्रुघ्न को लंका भेजने को तत्पर होती है, पर वशिष्ठ ने उसे रोक लिया।

 

भर्ता नाम पर नार्या: शोभन भूषणादपि । निश्चय ही पति, नारी के लिए आभूषणों की अपेक्षा भी अधिक शोभा का हेतु है।
-वाल्मिकी (रामायण, सुन्दरकाण्ड, १६/२६) व्यसनेसु न कृच्छे षु न युद्धषु स्वयंवरे। न क्रतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिायाः। विपतिकाल में पीड़ा के अवसरों पर, युद्धों में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह के अवसर पर स्त्रियों का दिखाई देना दोष की बात नहीं है।

-वाल्मिकी (रामायण, युद्धकाण्ड, ११४/२८) पृथक्स्त्रीणां प्रचारेण जातिं त्वं परिशंकसे। नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर तुम सम्पूर्ण स्त्री जाति पर ही संदेह करते हो।

-वाल्मिकी (रामायण, युद्धकाण्ड, ११६/७)

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