पांचाल
देश के राजा दुपद की कन्या पांचाली द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई। दुपद ने अपनी
पुत्री के स्वयंवर की जब तैयारी की तो सभाभवन के मध्य एक स्थान पर काफी ऊंचाई पर
चक्र बांध रखा था। चक्र के उस ओर एक मछली बांध रखी थी। घूमते हुए चक्र के नीचे तेल
से भरी कड़ाही में छाया देखकर जो पांच बाणों से उस मछली को भेदेगा उसी के साथ
द्रोपदी का विवाह किया जायेगा। स्वयंवर की यह शर्त थी। स्वयंवर में सम्मिलित सभी
राजा इसमें असफल हो गये। कर्ण को सूत पुत्र होने के कारण यह अवसर नहीं दिया गया था
फिर अर्जुन ने सर संधान कर मत्स्य वेध किया। द्रौपदी ने अर्जुन के गले में जयमाला
डाली।
द्रौपदी
को लेकर घर पहुँचने पर अर्जुन ने कहा-“मां!
हम एक वस्तु जीत कर लाये हैं।” कुन्ती
ने घर के भीतर से ही बिना देखे कह दिया-“पांचों
भाइयों में बांट लो, सभी मिलकर
उसे उपयोग में लो।” कुन्ती ने
बाहर आकर जब द्रौपदी को देखा तो उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। माता के वचनों की रक्षार्थ
पांचों भाइयों ने उससे विवाह किया औरं द्रौपदी पांचों पाण्डवों की पत्नी बनी।
दुर्योधन
द्वारा पाण्डवों को अनेक प्रकार के कष्ट दिये गये। लाक्षागृह से जीवित बचकर निकलने
तथा द्रुपद की पुत्री से विवाह करने के उपरान्त भीष्म के समझाने पर धृतराष्ट्र ने
विदुर को भेजकर पांडवों को सम्मान पूर्वक बुला लिया और आधा राज्य बांट कर अलग दे
दिया गया। युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्थ नाम की नयी राजधानी बसायी । युधिष्ठिर ने
राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ के पश्चात् कौरव राजमहल के शिल्प को देख रहे थे। एक जगह
जलकुण्ड को स्थल समझ कर दुर्योधन आगे बढ़ा और उसमें गिर गया। द्रोपदी को हंसी आ
गयी, उसने कहा-“अंधों
के पुत्र अंधे ही होते हैं।” यह
सुन दुर्योधन बड़ा लज्जित हुआ तथा उसे अपमान का अनुभव हुआ।
दुर्योधन
ने अपने अपमान का बदला लेने की ठान रखी थी। उसने मामा शकुनि से मिलकर मंत्रणा की
और युधिष्ठिर, जिनको जुए
का बड़ा शौक था, जुआ खेलने
के लिए आमंत्रित किया। शकुनि पासे फेंक रहा था और कपटपूर्ण पासों से युधिष्ठिर
अगली बाजी जीतने के उन्माद में हर बाजी हारते गये और एक-एक कर
उन्होंनें, अपनी
सारी सम्पति, राज्य,
अपने भाई और स्वयं को भी दाव पर लगा दिया और
सबको हार गये। तब अन्त में द्रोपदी को भी दाव पर लगा दिया। बाजी तो हारनी ही थी।
उसे जीतने के बाद दुर्योधन ने द्रोपदी को पकड़ कर लाने का आदेश दिया। दूत के कहने
से द्रोपदी नहीं आई तो दुर्योधन का छोटा भाई दुःशासन उसे लेने गया। द्रौपदी दाव पर
जीती हुई अब हमारी दासी है।
दुःशासन
द्रोपदी के केश पकड़कर घसीटता हुआ उसे राज्यसभा में लाया। पाण्डव उसके पति सिर
नीचा किये बैठे थे। दुर्योधन को कहा-“धर्मराज,
जो स्वयं अपने को दाव पर हार चुके थे,
उन्हें मुझे दाव पर लगाने का क्या अधिकार था
और किस मुंह से तुम मुझे दाव पर जीती हुई बतला रहे हो।”
द्रौपदी की इस नीतिपूर्ण बात को दुर्योधन कब
सुनने वाला था। दुर्योधन तो क्या भीष्म, द्रोण
आदि भी दुर्योधन के भय से चुप बैठे रहे और द्रौपदी की करुण पुकार किसी ने नहीं
सुनी।
दुर्योधन
ने दुःशासन को आदेश दिया कि देखते क्या हो, तुम
इस के सब वस्त्र उतार और विवस्त्र कर मेरी बायीं जांघ पर बिठाओ। आदेश पाते ही
दुःशासन उठा और द्रोपदी का चीर खींचने लगा। अबला के हाथों में इतनी कहां ताकत थी
वह दस हजार हाथियों के समान बल वाले दुःशासन का प्रतिरोध करती। उसने आंखें बंद कर
द्वारकाधीश कृष्ण का स्मरण किया तो उसने द्रोपदी का चीर बढ़ा कर उसकी लज्जा रखी।
दुःशासन साड़ी खींचते-खींचते थक गया पर दस हाथ की उसकी साड़ी का ओर-छोर नहीं था। -
इतना
बड़ा अपमान सहन करना द्रोपदी के लिए बहुत कठिन था। किन्तु विपरीत समय में उसने
धैर्य रखा। बारह वर्ष का वनवास जिसमें एक वर्ष का अज्ञातवास भी था,
कि समयावधि में द्रोपदी अपने पतियों के
सुख-दुख की सहभागी बनी। अनगिनत कष्टों को सहा। जब वनवास की अवधि समाप्त हुई तो
दुर्योधन अब भी पाण्डवों को पांच गांव देने को राजी नहीं था। अन्तिम प्रयास के लिए
कृष्ण स्वयं विराट् नगर से शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाने लगे तो द्रोपदी ने
कृष्ण को याद दिलाते हुए कहा
जाहू
भले कुरुराज पर, धारि
दूतवर-वेश। भूलि न जैयो पै वहां, केशव
द्रोपदी केश। “हे कृष्ण! आप
शान्तिदूत बनकर हस्तिानपुर जा रहे हैं, यह
अच्छी बात है, जाईये,
आज से बारह वर्ष पूर्व जिस दिन उस दुष्ट
दुःशासन ने भरी सभा में मेरे ये बाल खींचे थे उस दिन से ही इनमें कघी नहीं की गयी
है, ये बांधे नहीं गये
हैं। में इन्हें दुःशासन के रक्त से धोकर ही बांधूगी। मैने यह प्रतिज्ञा की है। हे
मधुसूदन!
समझौते
से शान्ति और दुर्योधन की दी हुई भिक्षा मेरे भीतर जो अन्तज्र्वाला जल रही है,
उसे कदापि शन्त नहीं कर पायेगी। मैं अपने
अपमान का प्रतिशोध लेकर रहूंगी। कहिये केशव क्या मेरे ये केश आजीवन खुले ही रहेंगे?
यदि पाण्डव कायर हो गये हैं और उनमें युद्ध
करने की शक्ति शेष नहीं रही है तो मैं अपने पांचों पुत्रों को आदेश दूंगी,
बेटे अभिमन्यु को कहूँगी कि तुम अपनी माँ के
अपमान का बदला कौरवों से लो। तुम शन्तिदूत बन कर जा रहे हो मेरे हृदय की वेदना
भूमिखण्डों से तो क्या, साम्रज्य
प्राप्ति पर भी शान्त नहीं होगी। मैं तो कौरवो की लाशों को तड़पते हुए देखना चाहती
हूँ। मुझे शान्ति नहीं, युद्ध
प्रिय है। मैं अपने अपमान को भूल नहीं सकती।”
द्रौपदी
के इस कथन से उसकी आन्तरिक वेदना अभिव्यक्त होती है। वह इस बात में विश्वास रखती
है कि वध्य का वध नहीं करने से भी वही पाप होता है जो अवध्य का वध करने में होता
है। दुष्ट और आततायी को दण्ड मिलना ही चाहिए। उससे शान्ति की वार्ता करना-या आशा
रखना बेकार है। आखिर में वही हुआ। क्ष्ण के लाख समझाने पर भी दुर्योधन नहीं माना।
महाभारत हुआ। दुःशासन के रक्त से अपने केशों को धोकर द्रौपदी ने बरसों से अपने
हृदय में प्रज्वलित अपमान की आग को शान्त किया। कुरुवंश के सभी कौरवों का नाश हुआ।
पाण्डवों की विजय हुई।
द्रौपदी
जितनी वीर और साहसी थी उतनी ही उदार और कष्ट सहिष्णु भी। मातृत्व-वेदना की सच्ची
अनुभूति केवल मां ही कर सकती है और दूसरा कोई नहीं कर सकता। उसका वात्सल्य और
मातृत्व भाव कितना विशाल था कि महाभारत समाप्त हुआ, पाण्डव-सेना
जब रात्रि में शयन कर रही थी। कृष्ण पांचों पाण्डवों और द्रौपदी को लेकर उपलव्य
नगर गये हुए थे। उस समय रात्रि में अश्वत्थामा ने आग लगा दी और उसके पुत्र उस
अग्नि में जल कर भस्म हो गये। द्रौपदी का हृदय यह दृश्य देख करुण क्रन्दन से
चीत्कार उठा। वीर माता को इस बात का दुख नहीं होता यदि उसके पुत्र युद्ध में लड़कर
मारे जाते परन्तु जिस क्रूर ढंग से ब्राह्मण अश्वत्थामा ने निर्दयतापर्वृक सोते
समय उन्हें मारा, इससे बड़ा
दुख हुआ। अर्जुन ने अश्वत्थामा को बांधकर द्रौपदी के सम्मुख ला खड़ा किया और कहा,
अपनी इच्छानुसार इसे दण्ड दो। द्रोणाचार्य के
पुत्र अश्वत्थामा को देखकर द्रौपदी का मातृत्व-भाव असीम विस्तार पा गया और उसने
अश्वत्थामा को बंधन मुक्त करने का आदेश दिया-“इसे
छोड़ दो। जैसे मुझे पुत्रों का शोक रहा है, मैं
उनके वियोग में दुःखी होकर रो रही हूं ऐसा ही दुख प्रत्येक बच्चे की मां को होता
होगा। देवी कृपी (अश्वत्थामा की मां) मेरी तरह पुत्र शोक में दुखी न हो अतः इसे
दुर्लभ है।
द्रोपदी
पतिपरायणा थी और कृष्ण की महारानी सत्यभामा ने तो एक बार उससे पूछा-“बहिन
तुम्हारे पति लोकपालों के समान वीर हैं। वे सदा तुमसे प्रसन्न रहते हैं,
तुम पर कभी रुष्ट नहीं होते। तुम ऐसा क्या
व्यवहार करती हो कि वे सदा तुम्हारे वश में रहते है।”
द्रौपदी ने सत्यभामा को विस्तार से ये सब
बातें अपनी दिनचर्या के आधार पर समझायों की सहृदयता, प्रेम,
परिचर्या, कार्यकुशलता
तथा अभिमान रहित होकर सब प्रकार से पति सेवा करने वाली स्त्री के यश और सौभाग्य की
वृद्धि होती है और पति उस पर सदा प्रसन्न रहते हैं।
राजपूत
नारी के ये संस्कार ही उसके गुणों की कीर्ति में चार चांद लगाते हैं। इन गुणों से
युक्त होकर जीवन व्यतीत करने वाली राजपूत नारी सिर्फ अपने पति को ही सदा प्रसन्न
नहीं रखती, वह परिवार
के प्रत्येक सदस्य के मान-सम्मान व स्नेह का ध्यान रखती है। उसकी पतिपरायणता,
कर्त्तव्यनिष्ठा,
परिचर्या, कार्यकुशलता
तथ अहंकाररहित व्यवहार पूरे परिवार को अपने मन के बंधन में बांधे रखता है। सचमुच ऐसे
गुण और संस्कारवाली राजपूत नारियों ने हमारी संस्कृति को जीवित ही नहीं रखा उसे
जीवन्त और गौरवमय बनाया।
>भर्तृनाथा
हि नार्यः । स्त्रियों के तो पति ही अवलम्ब होते हैं।
-भास (प्रतिमानाटक,
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